व्यक्ति मन से भी अपनी जाति का अनिष्ट चाहता ह, उसके दोनों लोक नष्ट हो जाते हैं। अतः आप आगे से हट जाइए। स्वामी को मुझे अपना शरीर अर्पण करने दीजिए।’ व्याघ्र तो इसी अवसर की प्रतीक्षा कर रहा था। वह तुरंत एक ओर को हट गया। ऊंट ने आगे बढ़कर सिंह से निवेदन किया-‘स्वामी ! यह सब आपके लिए ‘अभक्ष्य’ हैं, अतः आप मेरे शरीर का मांस खाकर अपनी भूख शांत कीजिए ताकि मुझे सद्गति प्राप्त हो सके। ऊट का इतना कहना था कि व्याघ्र उस पर टूट पड़ा। उसने ऊंट को चीर-फाड़कर रख दिया। सिंह सहित सभी ऊंट के मृत शरीर पर टूट पड़े और तुरंत उसको चट कर डाला। यह कथा सुनाकर संजीवक ने कहा-‘मित्र ! तभी मैं कहता हूं कि छल-कपट से भरे वचन सुनकर सहज ही उस पर विश्वास नहीं कर लेना चाहिए। आपका यह राजा भी क्षुद्र प्राणियों से घिरा हुआ है मैं इस बात को भलीभांति जान गया हूं। ऐसा प्रतीत होता है कि किसी दुष्ट सभासद के कान भरने पर ही वह मुझसे नाराज हुआ है। ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना है, कृपया आप ही बताएं। दमनक बोला—’ऐसे स्वामी की सेवा करने से तो विदेश गमन करना ही अच्छा है।’ संजीवक बोला-‘ऐसी हालत में, जब मेरा स्वामी मुझसे नाराज है, मुझे बाहर नहीं जाना चाहिए। अब तो युद्ध के अलावा और कोई श्रेयस्कर उपाय मुझे सूझ ही नहीं रहा है।’ यह सुनकर दमनक विचार करके लगा कि यह दुष्ट तो युद्ध के लिए तत्पर दिखाई पड़ता है। यदि इसने अपने तीक्ष्ण सींगों से स्वामी पर प्रहार कर दिया तो अनर्थ ही हो जाएगा। ‘किंतु स्वामी और सेवक के बीच लड़ाई होना ठीक नहीं है। क्योंकि श्ु की शक्ति जाने बिना ही जो वैर बढ़ाता है वह शत्रु के सम्मुख उसी प्रकार अपमानित और पराजित होता है जैसे एक टिटिहरे ने समुद्र का किया था।’
Leave a Reply